Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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सारे नगर में, गली-गली में घर-घर यही चर्चा होती रहती थी। सारे नगरवासी रोज वहाँ पहुँच जाते थे, केवल तमाशा देखने नहीं,बल्कि एक बार उस पर्ण-कुटी और उसके चक्षुहीन निवासी का दर्शन करने के लिए और अवसर पड़ने पर अपने से जो कुछ हो सके, कर दिखाने के लिए। सेवकों की गिरफ्तारी से उनकी उत्सुकता और भी बढ़ गई थी। आत्मसमर्पण की हवा-सी चल पड़ी थी।
तीसरा पहर था। एक आदमी डौंड़ी पीटता हुआ निकला। विनय ने नौकर को भेजा कि क्या बात है। उसने लौटकर कहा, सरकार का हुक्म हुआ कि आज से शहर का कोई आदमी पाँड़ेपुर न जाए, सरकार उसकी प्राण-रक्षा की जिम्मेदार न होगी।
विनय ने सचिंत भाव से कहा-आज कोई नया आघात होनेवाला है।
सोफिया-मालूम तो ऐसा ही होता है।
विनय-शायद सरकार ने इस संग्राम का अंत करने का निश्चय कर लिया है।
सोफिया-ऐसा ही जान पड़ता है।
विनय-भीषण रक्त-पात होगा!
सोफिया-अवश्य होगा।
सहसा एक वालंटियर ने आकर विनय को नमस्कार किया और बोला-आज तो उधर का रास्ता बंद कर दिया गया है। मि. क्लार्क राजपूताना से जिलाधीश की जगह आ गए हैं। मि. सेनापति मुअत्ताल कर दिए गए हैं।
विनय-अच्छा! मि. क्लार्क आ गए! कब आए?
सेवक-आज ही चार्ज लिया है। सुना जाता है, उन्हें सरकार ने इसी कार्य के लिए विशेष रीति से यहाँ नियुक्त किया है।
विनय-तुम्हारे कितने आदमी वहाँ होंगे?
सेवक-कोई पचास होंगे।
विनय कुछ सोचने लगे। सेवक ने कई मिनट बाद पूछा-आप कोई विशेष आज्ञा देना चाहते हैं?
विनय ने जमीन की तरफ ताकते हुए कहा-बरबस आग में मत कूदना; और यथा-साधय जनता को उस सड़क पर जाने से रोकना।
सेवक-आप भी आएँगे?
विनय ने कुछ खिन्न होकर कहा-देखा जाएगा।
सेवक के चले जाने के पश्चात् विनय कुछ देर तक शोक-मग्न रहे। समस्या थी, जाऊँ या न जाऊँ? दोनों पक्षों में तर्क-वितर्क होने लगा-मैं जाकर क्या कर लूँगा? अधिकारियों की जो इच्छा होगी, वह तो अवश्य ही करेंगे। अब समझौते की कोई आशा नहीं। लेकिन यह कितना अपमानजनक है कि न गर के लोग तो वहाँ जाने के लिए उत्सुक हों, और मैं, जिसने यह संग्राम छेड़ा, मुँह छिपाकर बैठा रहूँ। इस अवसर पर मेरा तटस्थ रहना मुझे जीवन-पर्यंत के लिए कलंकित कर देगा, मेरी दशा महेंद्रकुमार से भी गई-बीती हो जाएगी। लोग समझेंगे, कायर है। एक प्रकार से मेरे सार्वजनिक जीवन का अंत हो जाएगा।
लेकिन बहुत सम्भव है, आज भी गोलियाँ चलें। अवश्य चलेंगी। कौन कह सकता है, क्या होगा? सोफिया किसकी होकर रहेगी? आह! मैंने व्यर्थ जनता में यह भाव जगाया। अंधो का झोंपड़ा गिर गया होता और सारी कथा समाप्त हो जाती। मैंने ही सत्याग्रह का झंडा खड़ा किया,नाग को जगाया, सिंह के मुँह में उँगली डाली।
उन्होंने अपने मन का तिरस्कार करते हुए सोचा-आज मैं इतना कायर क्यों हो गया हूँ? क्या मैं मौत से डरता हूँ? मौत से क्या डर?मरना तो एक दिन है ही। क्या मेरे मरने से देश सूना हो जाएगा? क्या मैं ही कर्णधार हूँ? क्या कोई दूसरी वीर-प्रसू माता देश में है ही नहीं?
सोफिया कुछ देर तक टकटकी लगाए उनके मुँह की ओर ताकती रही। अकस्मात् वह उठ खड़ी हुई और बोली-मैं वहाँ जाती हूँ।
विनय ने भयातुर होकर कहा-आज वहाँ जाना दुस्साहस है। सुना नहीं, सारे नाके बंद कर दिए गए हैं?
सोफिया-स्त्रिायों को कोई न रोकेगा।
विनय ने सोफिया का हाथ पकड़ लिया और अत्यंत प्रेम-विनीत भाव से कहा-प्रिये, मेरा कहना मानो, आज मत जाओ। अच्छे रंग नहीं हैं। कोई अनिष्ट होने वाला है।
सोफिया-इसीलिए तो मैं जाना चाहती हूँ। औरों के लिए भय बाधक न हो, तो मेरे लिए भी क्यों हो?
विनय-क्लार्क का आना बुरा हुआ।
सोफिया-इसीलिए मैं और जाना चाहती हूँ। मुझे विश्वास है कि मेरे सामने वह कोई पैशाचिक आचरण न कर सकेगा। इतनी सज्जनता अभी उसमें है।

यह कहकर सोफिया अपने कमरे में गई और अपना पुराना पिस्तौल सलूके की जेब में रखा। गाड़ी तैयार करने को पहले ही कह दिया था। वह बाहर निकली, तो गाड़ी तैयार खड़ी थी। जाकर विनयसिंह के कमरे में झाँका, वह वहाँ न थे। तब वह द्वार पर कुछ देर तक खड़ी रही, एक अज्ञात शंका ने, किसी अमंगल के पूर्वाभास ने उसके हृदय को आंदोलित कर दिया। वह अपने कमरे में लौट जाना चाहती थी कि कुँवर साहब आते हुए दिखाई दिए। सोफी डरी कि यह कुछ पूछ न बैठें, तुरंत गाड़ी में आ बैठी और कोचवान को तेज चलने का हुक्म दिया। लेकिन जब गाड़ी कुछ दूर निकल गई, तो वह सोचने लगी कि विनय कहाँ चले गए? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि वह मुझे जाने पर तत्पर देखकर मुझसे पहले ही चल दिए हों? उसे मनस्ताप होने लगा कि मैं नाहक यहाँ आने को तैयार हुई। विनय की आने की इच्छा न थी! वह मेरे ही आग्रह से आए हैं। ईश्वर! तुम उनकी रक्षा करना। क्लार्क उनसे जला हुआ है ही, कहीं उपद्रव न हो जाए? मैंने विनय को अकर्मण्य समझा। मेरी कितनी धृष्टता है! यह दूसरा अवसर है कि मैंने उन पर मिथ्या दोषारोपण किया। मैं शायद अब तक उन्हें नहीं समझी। वह वीर आत्मा हैं। यह मेरी क्षुद्रता है कि उनके विषय में अकसर मुझे भ्रम हो जाता है। अगर मैं उनके मार्ग का कंटक न बनी होती, तो उनका जीवन कितना निष्कलंक,कितना उज्ज्वल होता? मैं ही उनकी दुर्बलता हूँ, मैं ही उनको कलंक लगाने वाली हूँ! ईश्वर करे, वह इधर न आए हों। उनका न आना ही अच्छा। यह कैसे मालूम हो कि यहाँ आए या नहीं! चलकर देख लूँ।

उधर विनयसिंह दफ्तर में जाकर सेवक-संस्था के आय-व्यय का हिसाब लिख रहे थे। उनका चित्ता बहुत उदास था। मुख पर नैराश्य छाया हुआ था। रह-रहकर अपने चारों ओर वेदनातुर दृष्टि से देखते और फिर हिसाब लिखने लगते थे। न जाने वहाँ से लौटकर आना हो या न हो,इसलिए हिसाब-किताब ठीक कर देना आवश्यक समझते थे। हिसाब पूरा करके उन्होंने प्रार्थना के भाव से ऊपर की ओर देखा; फिर बाहर निकले, बाइसिकल उठाई और तेजी से चले, इतने सतृष्ण नेत्रों से पीछे फिरकर भवन, उद्यान और विशाल वृक्षों को देखते जाते थे, मानो उन्हें फिर न देखेंगे, मानो यह उसका अंतिम दर्शन है। कुछ दूर आकर उन्होंने देखा, सोफिया चली जा रही है। अगर वह उससे मिल जाते,कदाचित् सोफिया भी उनके साथ लौट पड़ती; पर उन्हें तो यह धुन सवार थी कि सोफ़िया के पहले वहाँ जा पहुँचूँ। मोड़ आते ही उन्होंने अपनी पैरगाड़ी को फेर दिया और दूसरा रास्ता पकड़ा। फल यह हुआ कि जब वह संग्राम-स्थल में पहुँचे, तो सोफिया अभी तक न आई थी। विनय ने देखा, गिरे हुए मकानों की जगह सैकड़ों छोलदारियाँ खड़ी हैं और उनके चारों ओर गोरखे खड़े चक्कर लगा रहे हैं। किसी की गति नहीं है कि अंदर प्रवेश कर सके। हजारों आदमी आस-पास खड़े हैं, मानो किसी विशाल अभिनय को देखने के लिए दर्शकगण वृत्ताकार खड़े हों। मधय में सूरदास का झोंपड़ा रंगमंच के समान स्थिर था। सूरदास झोंपड़े के सामने लाठी लिए खड़ा था, मानो सूत्रधार नाटक का आरम्भ करने को खड़ा है। सब-के-सब सामने का दृश्य देखने में इतने तन्मय हो रहे थे कि विनय की ओर किसी का धयान आकृष्ट नहीं हुआ। सेवक-दल के युवक झोंपड़े के सामने रातों-रात ही पहुँच गए थे। विनय ने निश्चय किया कि मैं भी वहीं जाकर खड़ा हो जाऊँ।

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